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Sunday, May 4, 2014
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।
दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।
ये धुँधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है
रोग़नों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।
राख, कितनी राख है, चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख।
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।
दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।
ये धुँधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है
रोग़नों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।
राख, कितनी राख है, चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख।
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।
दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।
ये धुँधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है
रोग़नों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।
राख, कितनी राख है, चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख।
Wednesday, April 9, 2008
ज़मीन पे चल न सका आसमान से भी गया
ज़मीन पे चल न सका आसमान से भी गया
कटा के पर ये परिंदा उडान से भी गया
तबाह कर गयी पक्के मकान की ख्वाहिश
मैं अपने गाँव के कच्चे मकान से भी गया
परायी आग में कूदा तो क्या मिला तुझ को
उसे बचा न सका अपनी जान से भी गया
भुलाना चाहा तो भुलाने की इंतहा कर दी
वह शख्स अब मेरे वहम ओ गुमान से भी गया
किसी के हाथ का निकला हुआ वह तीर हूँ मैं
हद्फ़ को छू न सका और कमान से भी गया
Labels: unknown
क्यूं डरें ज़िंदगी में क्या होगा
क्यूं डरें ज़िंदगी में क्या होगा
कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा
हंसती आंखों में झाँक कर देखो
कोई आंसू कहीं छुपा होगा
इन दिनों नउम्मीद सा हूँ मैं
शायद उसने भी ये सुना होगा
देखकर तुमको सोचता हूँ मैं
क्या किसी ने तुम्हें छुआ होगा
Labels: unknown
Wednesday, April 2, 2008
आंखों का रंग, बात का लहजा बदल गया
आंखों का रंग, बात का लहजा बदल गया
वो शख्स एक शाम में कितना बदल गया !
कुछ दिन तो मेरा अक्स रहा आईने पे नक्श
फिर यूं हु’आ के ख़ुद मेरा चेहरा बदल गया
जब अपने अपने हाल पे हम तुम न रह सके
तो क्या हु’आ जो हमसे ज़माना बदल गया
कदमों टेल जो रेत बिछी थी वो चल परी
उस ने चुराया हाथ तो सेहरा बदल गया
को’ई भी चीज़ अपनी जगह पर नहीं रही
जाते ही एक शख्स के, क्या क्या बदल गया !
एक सर-खुशी की मौज ने कैसा किया कमाल
वो बे-नियाज़, सारे का सारा बदल गया
उठत कर चला गया को’ई वक्फे के दरमियाँ
परदा उठता तो सारा तमाशा बदल गया
हैरत से सारे लफ्ज़ उसे देखते रहे
बातों में अपनी बात को कैसा बदल गया
कहने को एक na में दीवार ही बनी
घर की फिजा, मकान का नक्शा बदल गया
शायेद वफ़ा के खेल से उकता गया था वो
मंजिल के पास आ के जो रास्ता बदल गया
कायेम किसी भी हाल पे दुनीया नहीं रही
ता’बीर खो गयी, कभी सपना बदल गया
मंज़र का रंग असल में साया था रंग का
जिस ने उसे जिधर से भी देखा बदल गया
अन्दर के मौसमों की ख़बर उस की हो गयी
उस नौ-बहार-ऐ-नाज़ का चेहरा बदल गया
आंखों में जितने अश्क थे जुगनू से बन गए
वो मुस्कुराया और मेरी दुनीया बदल गया
अपनी गली में अपना ही घर ढूंढते हें लोग
“अमजद” ये कौन शाह’र का नक्शा बदल गया
Sunday, March 30, 2008
जुगाड़
जुगाड़ इक नई तेहज़ीब की अलामत है
बिना जुगाड़ के जीना यहाँ क़यामत है
जुगाड़ है तो चमन का निज़ाम अपना है
जुगाड़ ही को हमेशा सलाम अपना है
जुगाड़ दिन का उजाला है रात रानी भी
जुगाड़ ही से हुकूमत है राजधानी भी
जुगाड़ ही से मोहब्बत के मेले ठेले हैं
बिना जुगाड़ के हम सब यहाँ अकेले हैं
जुगाड़ चाय की प्याली में जब समाती है
पहाड़ काट के ये रास्ते बनाती है
जुगाड़ बन्द लिफाफे की इक कशिश बन कर
किसी अफसर किसी लीडर को जब लुभाती है
नियम उसूल भी जो काम कर नहीं पाते
ये बैक डोर से वो काम भी कराती है
जुगाड़ ही ने तो रिश्वत पे दिल उछाला है
जुगाड़ ही से कमीशन का बोल बाला है
जुगाड़ एक ज़ुरूरत है आदमी के लिये
जुगाड़ रीढ़ की हड्डी है ज़िन्दगी के लिये
मैं दूसरों की नहीं अपनी तुम्हें सुनाता हूँ
जुगाड़ ही की बदौलत यहाँ पे आया हूँ
जुगाड़ क्या है जो पूछोगे हुक्मरानों से
यही कहेंगे वो अपनी दबी जबानों से
जुगाड़ से हमें दिल जान से मोहब्बत है
जुगाड़ ही की बदौलत मियां हकूमत है
जहाँ जुगाड़ ने अपना मिजाज़ बदला है
नसीब कौम का फूटा समाज बदला है
जुगाड़ ही ने बिछाए हैं ढेर लाशों के
जुगाड़ ही ने तो छीने हैं लाल माओं के
हमें जुगाड़ से जुल्मों सितम मिटाना है
खुलूस प्यार मोहब्बत के गुल खिलाना है
करो जुगाड़ खुलुसो वफ़ा के दीप जलें
करो जुगाड़ कि फिर अमन की हवाएँ चलें
करो जुगाड़ के सिर से कोई चादर न हटे
करो जुगाड़ के औरत की आबरू न लुटे
करो जुगाड़ के हाथों को रोज़गार मिले
मेहक उठे ये चमन इक नई बहार मिले
करो जुगाड़ नया आसमाँ बनाएँ हम
कबूतर अमन के फिर से यहाँ उड़ाएँ हम
तो आओ मिले इसी को सलाम करते है
जुगाड़ की यही तेहज़ीब आम करते हैं।
साभार-sahityakunj.net
Labels: अहमद रईस निज़ामी
Sunday, March 23, 2008
एक मुसलसल अजाब ले जाना
एक मुसलसल अजाब ले जाना
मेरी आंखों के ख्वाब ले जाना
फासिले जब फरेब देने लगें
कुर्बतों के सराब ले जाना
लौट आना कभी जो मुमकिन हो
और यादों के बाब ले जाना
इस से पहले के रुत बदल जाये
अपने सारे गुलाब ले जाना
तिश्नगी, आस, तीरगी “ज़हिद”
कोई तो इजतिराब ले जाना
ज़हिद मसूद

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