तू इस कदर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचूँ, अजीब लगता है
जीसे न हुस्न से मतलब न इश्क से सरोकार
वो शक्ष मुझ को बहुत बाद-नसीब लगता
हुदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा
न को’ई घिर, न को’ई रकीब लगता है
ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहतें ये खुलूस
कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता
है
उफक पे दूर चमकता हवा को’ई तारा
मुझे चराघ-ए-दयार-ए-हबीब लगता
है
न जाने कब को’ई तूफ़ान अय गा यारों
बुलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है
Labels: जन निसार अख्तर
शोला-ए-इश्क बुझाना भी नहीं चाहता है
वो मगर खुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उस को मंजूर नहीं है मिरी गुमराही भी,
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सेहरा की खुश आती है मगर,
देर तक ख़ाक उडाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करें
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है